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सावधानी-खास सूचना / Caution

सर्व अवेमे मंत्राः श्री गुरूमुखादवगत्यौव पठिताः, महते श्रेय़से नान्तथेति शिवशासनम् ।।
इति साख्यापनतन्त्र वचनेन्, गुरूमुखागमं विना जपस्य निषेधात ।।
श्रीविद्या ज्ञान मात्रेण, सर्वसिध्धि प्रजायते, एसा विद्य न दातव्यं, न भक्त कदाचन ।।

गुरुकी आज्ञा, मार्गदर्शन एवं दिक्षा प्राप्त कीए बीना (इस वेबसाइटमें बताये गये) तमाम मंत्रो, पूजा, पाठ, जाप, अनुष्ठान ईत्यादिका प्रयोग न करना चाहिये, ऐसा शास्त्र वचनोक्त शिवसाशन है। और अगर कोई ऐसा करता है तो श्रीविद्या उस व्यक्तिको – साधकको फलदायक नही होती है ऐवम माँ त्रिपुराम्बा नाराज होके साधककी तामाम लक्ष्मीका नाश करती है।

ईसलिये तमाम युसर्सको, ऐसा न करनेका श्रीविद्या फाउन्डेशन ट्रस्टका नम्र निवेदन है। अगर कोई ऐसा करता है, ओर उसको कोई नुकशान, तकलीफ, परेशानी इत्यादी हो तो श्रीविद्या फाउन्डेशन ट्रस्ट कीसीभी प्रकार से जवाबदार नही रहेगा। श्रीविद्या फाउन्डेशन ट्रस्ट का ये प्रयास सिर्फ श्रीविद्या की जानकारी एवं प्रचार के लिये है। For more details feel free to contact SVFT.

तंत्रका अर्थ क्या है?

भारतीय एवं हिन्दू शास्त्रों के अनुसार तंत्र समस्त साधना का मूल है। तंत्र शास्त्र मैं सभी संप्रदायों के सभी प्रकार की साधनाओं का गूढ़ रहस्य छीपा हुआ हैं। तंत्र मात्र शक्ति उपासना ही नहीं बल्कि सभी साधनाओं का एकमात्र आश्रय हैं। जिस प्रकार मनुष्य की तीन प्रकार की प्रकृति सात्विक, राजसिक और तामसिक हैं, उसी प्रकार तंत्र शास्त्र भी सात्विक, राजसिक और तामसिक भेद से तीन प्रकार के होते हैं। जिसकी जैसी प्रकृति हो वैसे ही साधना पथ को ग्रहण करके मनुष्य अपने जीवन को कृतज्ञ कर सकता हैं। जैसे शक्ति दैवी गुणयुक्त जीवों (देवों) की जननी रूपा हैं, उसी प्रकार वह असुर गुणयुक्त जीवों (असुरों) की भी जननी हैं। इसी कारण से देवता और असुर दोनों ही शक्ति उपासना में प्रवृत्त रहते हैं और दोनों ही अपने अपने स्वभाव के अनुसार साधना (उपासना) करते हैं, एवं साधना फल भी साधना की प्रकृति अनुसार होता हैं। तंत्र शास्त्र मैं इसी कारण दोनों प्रकार की साधना प्रणाली बताई गइ हैं। हम यहां दैवी गुणयुक्त जीवों (देवों) की अर्थात् देवताओ की साधना प्रणाली की बात करेंगे।

भारतमैं जो लोग वेदोंका अनुसरण करते हैं, वो सामान्यतः पाँच उपासक संप्रदायमें विभक्त हैं – गाणपत्य, सौर, शाक्त, वैष्णव और शैव। ये सभी लोग उस एकही विश्वतोमुख भगवानकी अलग अलग भावोमें उपासना करते है। लेकिन इन सभी देव-देवीओमें भेद करना- करवाना अपना अल्पज्ञान का ही प्रदर्शन हैं। पद्मपुराणमें श्री भगवान कहते हैं की –

सौराश्च शैनग्णेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।
मामेव ते प्रपधन्ते वर्षाम्भः सागरं यथा ।।
एकोङहं पग्चधा भिन्नः क्रीडार्थं भुवनेखिले ।

अर्थात् – वर्षा का जल जिस प्रकार चारों ओर से आकर समुद्रमें गिरता है, उसी प्रकार गाणपत्य, सौर, शाक्त, वैष्णव और शैव सभी आकर मुझे ही प्राप्त होते है। मैं ही लीला के लिये जगत् में पाँच रुपोमें विभक्त हो रहा हुँ।
मनुष्य अपने अपने स्वभाव के अनुसार कोई सरल, कोई कठीन, नानाविध मार्गोको अपनाकर एक ही ईश्वरको लक्ष करके चलते हैं। जिस प्रकार नदियों का पथ विभिन्न होते हुए भी अंतमें सब नदियाँ एक समुद्रमें आकर मिलती हैं, उसी प्रकार मनुष्य जीस कीसी मार्गसे होकर जाय, अंतमें सब कोई भगवान के चरणमें ही पहोंचते हैं। इसीलिय़े अपने शास्त्र कहते हैं की –

यो ब्रह्मा स हरिः प्रोक्तो यो हरिः स महेश्वरः।
यो काली सैव कृष्णः स्याद्यः कष्णः सैव कालिका ।।
देवदेवी समुदिश्य  न कुर्यादन्तरं क्वचित्।
तत्तद्धेदो न मन्तव्यः शिवशक्तिमयं जगत्।।

अर्थात् – जो ब्रह्मा हैं वही हरि हैं, जो हरि हैं वही महेश्वर हैं। जो कालि हैं वही कृष्ण हैं, जो कृष्ण हैं कालि हैं। देव-देवीकी साधना करके कभीभी अपने मनमें भेदभाव करना उचित नहीं हैं। देवता के चाहे जितने ही रुप या नाम हो, सभी एक ही हैं और यह सपुर्ण जगत् शिव-शक्तिमय ही है। श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंन्धमें भी कहा गया हैं कि –

त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम्।
सर्वभूतानात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिमधिगच्छति।।

अर्थात् – तीन भावों (शिव, शक्ति, विष्णु) में कीसी भी भावको जो अलग नहिं समझते, वही उसको सर्वभूतात्मा के रूपमें दर्शन कर शकते हैं और वही शांति को प्राप्त कर शकते है।
तंत्रके मत अनुसार देवीकी उपासना ही एकमात्र उपासना नहीं हैं। गाणपत्य, सौर, शाक्त, वैष्णव और शैव सभी शक्ति के उपासक हैं। उसके अनुसार पुरूष निर्गुण हैं और निर्गुणकी उपासना नहीं होती। देवता पुरूष होने पर भी वास्तव में वहाँ भी उसकी शक्तिकी ही उपासना होती है। शक्ति ही हमारे ज्ञान का विषय होती है, शक्तिमान या पुरूष ज्ञानातीत सत्तामात्र है। वो कभीभी किसी के ज्ञान का विषय नहीं होता।

श्रीविद्या क्या है?

यथामधुए पुष्पेभ्यो ध्रृत्तंदुग्धात् रसात् पयम
एवंही सर्वतंत्राणां श्रीविद्यासाराम्युअते ।

अर्थात् जैसे पुष्पका सार मधु है, दुधका सार धी है, और सर्व रसोका सार दुध है वैसे ही सर्व तंत्रोका सार श्रीविद्या है.
तंत्रके अनुसार श्रीविद्या देवोकी विद्या मानी गई है। श्रीविद्या भगवान श्रीमहादेव के द्वारा भगवान श्रीविष्णुको, भगवान श्रीविष्णु के द्वारा भगवान श्री ब्रह्माजीको, भगवान श्री ब्रह्माजी के द्वारा भगवान श्री दत्तात्रेयको, भगवान श्री दत्तात्रेय के द्वारा भगवान श्री परशुरामजीको, भगवान श्री परशुरामजी के द्वारा ऋषीश्री दुर्वाषाजीको, ऋषीश्री दुर्वाषाजी के द्वारा आचार्यश्री गोडपादाचार्यजीको, और आचार्यश्री गोडपादाचार्यजी के द्वारा आद्यजगतगुरू श्री शंकराचार्यजीको दिक्षाके द्वारा प्राप्त हुई थी। और उसके बाद आद्यजगतगुरू श्री शंकराचार्यजीऩे चार मठोमां श्रीयंत्रकी स्थापना करके श्रीविद्याका प्रचार मानव कल्याण के हेतु किया था।

श्रीविद्याका उपासक भोग और मोक्ष दोनोको प्राप्त कर शकते है। श्रीविद्याके अनुसार शक्ति के बीना किसीभी कार्य संभव नही है। शक्ति शीवमें संपन्न होती है। शीवका बीज ध्वनीमै से नाद और नाद मै से \ (अ उ म) प्रगट होता है। उसी प्रकार शक्ति भी उसमे से ही प्रगट हुई है, और इसीलिये शक्ति शीव से एवम शीव शक्ति से अलग नही है। वो दोनो अद्वैत है, और इसीलिये उनको अर्धनारेश्वर से पहचाना जाता है। शीव निराकार है, जीसमै से प्रकाश उत्पन्न होता है और इसीलिये उनके प्रतिकको ज्योर्तिलींग कहते है। जैसे पुष्पमें छिपी हुई सुगंध औऱ दुधमें छिपा हुआ धी हम देख नही शकते, वैसेही शीव-चेतना अद्रश्य है। जीसको हम देख नही शकते लेकिन हमें अनुभुति होती है। चेतना प्राणीमात्रमें श्वासरूप रहती है, जीसे हम देख नही शकते, लेकिन जैसेही वो शरीरको त्याग देती है, हम मृत हो जाते है। इसीलिये भगवान शंकर स्वयं कहते है कि,

शक्तिबीना महेशानी, सदाहम सबरूपकं।
शक्ति युक्तो यदादेवी, सदाहम शीवरूपकं ।।

अर्थात् हे महेशानी तु मेरेमें है तो ही मैं शीव हुं, जो तु मेरेमें नहीं है तो मैं शबरुप हुं।

आदि शंकराचार्य रचित गुरु पादुका पंचकम्

ॐ नमो गुरुभ्यो गुरु पादुकाभ्यो,
नमः परेभ्यः पर पादुकाभ्य: ।

आचार्य सिध्धेश्वर पादुकाभ्यो,
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम् ।। //१//

ऐंकार  ह्रींकार  रहस्य युक्ता,
श्रींकार  गूढ़ार्थ महाविभूत्या ।

ओमकार मर्म प्रतिपादिनीभ्याम्,
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम् ।। //२//

होत्राग्नि हौत्राग्नि हविष्य होत्र,
होमादि सर्वाकृति भासमानम् ।

यद् ब्रह्मतद बोध वितरिणीभ्याम्,
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम् ।। //३//

कामादि सर्पव्रज गारुडाभ्याम्,
विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्याम् ।

बोध प्रदाभ्याम् द्रुत मोक्षदाभ्याम्,
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम्  ।। //४//

अनंत संसार समुद्र तारा,
नौकायिताभ्याम्  स्थिर भक्तिदाभ्याम् ।

जाड्याब्धि संशोषण वाड़ वाभ्याम्,
नमो नमः श्रीगुरु पादुकाभ्याम् ।। //५//

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